लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और चुनाव का माहौल गरमा रहा है। चुनावों की तारीखें घोषित किए जाने के साथ ही जैसी कि उम्मीद थी, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तीखी बयानबाजी और तेज हो गई। कौरव रूपी विपक्षी दल एवं पाण्डव रूपी भाजपा के बीच इस चुनाव में असली जंग सत्य और असत्य के बीच है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की यह नोक-झोंक ही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है, यह जितनी शालीन एवं उग्र होगी, लोकतंत्र का यह महापर्व कुंभ उतना ही ऐतिहासिक एवं खास होगा। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है और उदार बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली का जीवन्त उदाहरण है जिसकी वजह से चुनावों का समय एवं प्रचार विविधतापूर्ण, आक्रामक व रंग-रंगीला होना ही है मगर इसमें कहीं भी कड़वापन, उच्छृंखलता और आपसी रंजिश का पुट नहीं आना चाहिए।
इस बार के चुनाव में जहां भाजपा नेतृत्व अगले 20 वर्षों का विजन पेश कर रहा है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व इसे लोकतंत्र बचाने का आखिरी मौका करार दे रहा है। यानी इन चुनावों का फलक पांच साल के काम के आधार पर अगले पांच साल के लिए जनादेश के सामान्य ट्रेंड तक सीमित नहीं रहा। यह चुनाव असल में आजादी के अमृतकाल यानी वर्ष 2047 के लक्ष्य को सुनिश्चित करने वाला है। इस चुनाव में सर्वाधिक चर्चा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनके भावी देश-निर्माण के संकल्प की है। असल में तो इन चुनाव में भाजपा की जीत तो निश्चित मानी जा रही है, लेकिन वह अपने 400 के लक्ष्य को हासिल कर पाती है या नहीं? भाजपा इसके इर्द-गिर्द अपना अभियान चला रही हैं। जबकि विपक्ष जीत का दावा करते हुए भाजपा के इस बड़े लक्ष्य को हास्यास्पद बता रहा है, उनके प्रति अपनी नापसंदगी से परेशान है। भाजपा के पास बड़ा उद्देश्य है, जबकि विपक्ष भाजपा की काट करने के लिये भी प्रभावी मुद्दे नहीं तलाश पा रही है। भाजपा प्रचार में शामिल हैं- आर्थिक विकास, देश और विदेश में सशक्त राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, सांस्कृतिक पुनरुत्थान, नया भारत-सशक्त भारत, औद्योगिक क्रांति, दुनिया की महाशक्ति बनना, स्थिरता, शांति। विपक्ष इन ही बड़े उद्देश्यों की आलोचना कर रहा है। मोदी इन चुनावों के महानायक है, परिवर्तनकारी व्यक्ति हैं जो स्थिरता का वादा करते हुए वोट मांग रहे हैं। अपने आलोचकों के लिए, वह एक अत्यंत ध्रुवीकरण करने वाले व्यक्ति हैं।
इस बार का आम चुनाव रोमांचक होने के साथ देश में बड़े परिवर्तन का कारण बनेगा। इस चुनाव में सभी पार्टियां सरकार बनाने का दावा पेश कर रही हैं और अपने को ही विकल्प बता रही हैं तथा मतदाता सोच रहा है कि देश में नेतृत्व का निर्णय मेरे मत से ही होगा। इस वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक। बस केवल इसी से लोकतंत्र परिलक्षित है। बाकी सभी मयार्दाएं, प्रक्रियाएं हम तोड़ने में लगे हुए हैं। जो नेतृत्व स्वतंत्रता प्राप्ति का शस्त्र बना था, वही नेतृत्व जब तक पुन: प्रतिष्ठित नहीं होगी तब तक मत, मतदाता और मतपेटियां सही परिणाम नहीं दे सकेंगी। आज देश को एक सफल एवं सक्षम नेतृत्व की अपेक्षा है, जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि माने। आज देश को एक अर्जुन चाहिए, जो मछली की आंख पर निशाने की भांति भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराध, महंगाई, बेरोजगारी, बढ़ती आबादी, सरकारी खजाने का गलत इस्तेमाल, देश की सीमा-रक्षा आदि समस्याओं पर ही अपनी आंख गड़ाए रखें। इस दृष्टि से सबकी नजरे मोदी पर ही लगी हैं।
मोदी ही अर्जुन की मुद्रा में हैं जो मछली की आंख पर निशाना लगा सके। वे ही युधिष्ठिर है, जो धर्म का पालन करते हुए दिख रहे हैं। जो स्वयं को संस्कारों में ढाल, मजदूरों की तरह श्रम कर रहे हैं। वे आदर्शों एवं मूल्यों के साथ चुनावों में उतरे हैं, राजनीति की चकाचौंध में धृतराष्ट्र बने नेताओं के लिये वे एक चुनौती है। सभी विपक्षी दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है और परिवारवाद तथा व्यक्तिवाद की छाया है। कोई अपने बेटे को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है तो कोई अपने बेटे को मुख्यमंत्री के रूप में। किसी का पूरा परिवार ही राजनीति में है, इसलिए विरासत संभालने की जंग भी जारी है। ऐसे में मोदी ही सबसे प्रभावी नेता बन कर सामने आ रहे हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे पुराने मुद्दे भी उठाए ही जा रहे हैं, लेकिन वोटर के फैसले में इनकी कितनी भूमिका रहेगी यह अभी स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की दो-दो यात्राओं से उपजे प्रभाव की परीक्षा भी इन्हीं चुनावों में होनी है। कुल मिलाकर, विपक्ष और सत्ता पक्ष कुछ भी कहे देशवासियों की जागरूक चेतना को देखते हुए यह तय माना जा सकता है कि आम चुनाव का यह लोकतांत्रिक पर्व एक बार फिर देश में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा ही करेगा।
विपक्षी दलों ने देश-सेवा के स्थान पर स्व-सेवा में ही एक सुख मान रखा है। आधुनिक युग में नैतिकता जितनी जरूरी मूल्य हो गई है उसके चरितार्थ होने की सम्भावनाओं को इन विपक्षी दलों ने उतना ही कठिन कर दिया गया है। ऐसा लगता है मानो ऐसे तत्व पूरी तरह छा गए हैं। खाओ, पीओ, मौज करो। सब कुछ हमारा है। हम ही सभी चीजों के मापदण्ड हैं। हमें लूटपाट करने का पूरा अधिकार है। हम समाज में, राष्ट्र में, संतुलन व संयम नहीं रहने देंगे। यही आधुनिक चुनावों का घोषणा पत्र है, जिस पर लगता है कि सभी विपक्षी दलों ने हस्ताक्षर किये हैं। भला इन स्थितियों के बीच उन्हें वास्तविक जीत कैसे हासिल हो? आखिर जीत तो हमेशा सत्य की ही होती है और सत्य इन तथाकथित राजनीतिक दलों के पास नहीं है। महाभारत युद्ध में भी तो ऐसा ही परिदृश्य था। कौरवों की तरफ से सेनापति की बागडोर आचार्य द्रोण ने संभाल ली थी।
एक दिन दुर्योधन आचार्य पर बड़े क्रोधित होकर बोले-ह्यह्यगुरुवर कहां गया आपका शौर्य और तेज? अर्जुन तो हमें लगता है समूल नष्ट कर देगा। आप के तीरों में जंग क्यों लग गई। बात क्या है? आज लगभग हर राजनीतिक दल और उनके नेतृत्व के सम्मुख यही प्रश्न खड़ा है और इस प्रश्न का उत्तर भी और कहीं नहीं, उन्हीं के पास है। राजनीति की दूषित हवाओं ने हर राजनीतिक दल और उसकी चेतना को दूषित कर दिया है। सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विपक्षी दलों के प्रति विश्वास इस कदर उठ गया है कि चौराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सच्चाई की साक्षी ढूंढ़ती हैं। यही कारण है कि दुर्योधन की बात पर आचार्य द्रोण को कहना पड़ा, दुर्योधन मेरी बात ध्यान से सुनो। हमारा जीवन इधर ऐश्वर्य में गुजरा है। मैंने गुरुकुल के चलते स्वयं ह्यगुरु की मयार्दा का हनन किया है। हम सब राग रंग में व्यस्त रहे हैं। सुविधाभोगी हो गए हैं, पर अर्जुन के साथ वह बात नहीं। उसे लाक्षागृह में जलना पड़ा है, उसकी आंखों के सामने द्रौपदी को नग्न करने का दु:साहस किया गया है, उसे दर-दर भटकना पड़ा है, उसके बेटे को सारे महारथियों ने घेर कर मार डाला है, विराट नगर में उसे नपुंसकों की तरह दिन गुजारने को मजबूर होना पड़ा। अत: उसके वाणों में तेज होगा कि तुम्हारे वाणों में, यह निर्णय तुम स्वयं कर लो। लगभग यही स्थिति आज के राजनीतिक दलों के सम्मुख खड़ी है। किसी भी राजनीतिक दल के पास आदर्श चेहरा नहीं है, कोई पवित्र एजेंडा नहीं है, किसी के पास बांटने को रोशनी के टुकड़े नहीं हैं, जो नया आलोक दे सकें। जो मोदी रूपी अर्जुन के देश-विकास के बाणों का मुकाबला कर सके।
यह वक्त विपक्षी दलों और उनके उम्मीदवारों को कोसने की बजाय मतदाताओं के जागने का है। आज मतदाता विवेक से कम, सहज वृति से ज्यादा परिचालित हो रहा है। इसका अभिप्राय: यह है कि मतदाता को लोकतंत्र का प्रशिक्षण बिल्कुल नहीं हुआ। सबसे बड़ी जरूरत है कि मतदाता जागे, उसे लोकतंत्र का प्रशिक्षण मिले।
हमें किसी पार्टी विशेष का विकल्प नहीं खोजना है। किसी व्यक्ति विशेष का भी विकल्प नहीं खोजना है। विकल्प तो खोजना है भ्रष्टाचार का, अकुशलता का, प्रदूषण का, भीड़तंत्र का, गरीबी के सन्नाटे का, महंगाई का, राजनीतिक अपराधों का। यह सब लम्बे समय तक त्याग, परिश्रम और संघर्ष से ही सम्भव है। धृतराष्ट्र रूपी दलों की आंखों में झांक कर देखने का प्रयास करेंगे तो वहां शून्य के सिवा कुछ भी नजर नहीं आयेगा। इसलिए हे मतदाता प्रभु! जागो!