सूर्य-चंद्रमा, वर्षा-शरद, पशु-पक्षी, पर्वत-नदी आदि-आदि पर हमारा विचार बना रहता है, दौड़ता रहता है, फिर भी इस महान विश्व का नियमबद्ध संचालक हमारी दृष्टि से सदैव ओझल ही रहता है। इसलिए हमारी यह विवशता होती है कि हम उस अदृश्य संचालक शक्ति की कल्पना करें और उसे परिभाषित करें, ताकि सृष्टि के राज्य को नियंत्रित करने वाले साकार या निराकार स्वरूप की विवेचना हो सकें। हम राम की प्रभुता को समझ सकें और रामराज्य की संप्रभुता को परिभाषित कर सकें।
जब किसी समाज में सर्वव्यापक प्रभु मनुष्यों के हृदय में अपना विभूतिपूर्ण रवि जैसा प्रतापमय प्रकाश कर देते हैं, तब धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतानोत्पत्ति, सब वृत्तियों की वृद्धि ही होती है और समाज में शेष मत्सर, मान, मोह आदि दुष्प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं। यही सृष्टि का मूल मंत्र है, जिससे नवजागरण होता है।
सृष्टि अर्थात जीवन का मूलाधार। सृष्टि अर्थात हमारे अस्तित्व की परिभाषा। सृष्टि अर्थात प्रकृति और पुरुष के बीच में समन्वय। सृष्टि अर्थात अधिपति और आधिपत्य का संतुलन। जब भी हम सृष्टि पर विचार करते हैं, तो उसके विस्तार में हमें अनेक आयाम देखने को मिलते हैं। अनेक गतिविधियों से हमारा सामना होता है। अनेक विधियों को सीखते हुए हम सृष्टि के अंश मात्र के भी नियंता न होते हुए भी अपने कर्मों का फल अपने जीवन में ही प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते हैं। हम अधिपति बनना चाहते हैं। हम अधिकारी बनना चाहते हैं। हम नीति और नियति के विरुद्ध अपने अस्तित्व के लिए लड़ते हैं। इस सारी प्रक्रिया में कई बार हम सफल होते हैं और कई बार हम असफल। वैचारिक प्रवाह नित्य-प्रतिदिन हमारे भीतर उगते हैं, उठते हैं और गिर जाते हैं। कुछ वैचारिक प्रवाह ही ऐसे होते हैं, जो आपके जीवन काल में आपके साथ कुछ वर्षों तक या फिर लंबी कालावधि तक आपकी जीवन यात्रा में शामिल रहते हैं।
सूर्य-चंद्रमा, वर्षा-शरद, पशु-पक्षी, पर्वत-नदी आदि-आदि पर हमारा विचार बना रहता है, दौड़ता रहता है, फिर भी इस महान विश्व का नियमबद्ध संचालक हमारी दृष्टि से सदैव ओझल ही रहता है। इसलिए हमारी यह विवशता होती है कि हम उस अदृश्य संचालक शक्ति की कल्पना करें और उसे परिभाषित करें, ताकि सृष्टि के राज्य को नियंत्रित करने वाले साकार या निराकार स्वरूप की विवेचना हो सकें। हम राम की प्रभुता को समझ सकें और रामराज्य की संप्रभुता को परिभाषित कर सकें।
दरअसल, इन सब बातों के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए हमें राम के उन क्रांतिकारी विचारों को समझना पड़ेगा, जिन्हें हम ‘रामराज्य’ कहते हैं। यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ‘राम’ यहां क्रांति के प्रतीक नहीं हैं, परंतु ’रामराज्य’ भारतीय संस्कृति में क्रांति का प्रतीक है। रामराज्य ऐसी क्रांति है, जो अनवरत चली जा रही है।
मैं इसके इतिहास में नहीं जाऊंगा। परंतु मैं यह जरूर कहूंगा कि समकालीन परिदृश्य में भी रामराज्य की परिकल्पना किसी क्रांति से कम नहीं है। अगर हम इसके प्रमुख कारणों के बारे में संक्षेप में चर्चा करें, तो कहा जा सकता है कि लौकिक जीवन में शुद्धता हमारे व्यक्तित्व को शुद्ध तो बनाती है, लेकिन व्यक्तित्व-शोधन मात्र से हमारा काम नहीं चलता। इसलिए प्रकृति के नियमानुसार व्यक्तियों का समुदाय और उस समस्त समुदाय को व्यवस्थित रखना आवश्यक हो जाता है। व्यवस्थाहीन समुदाय द्वारा अराजकता फैलाने के कारण शुद्ध व्यक्तिविशेष को भी सुख-शांति से वंचित रहना पड़ता है। इसलिए स्वभाविक नियम के अनुसार सृष्टि में स्थित मानव समुदाय को भी व्यवस्थित रखना आवश्यक है।
हर समुदाय की, विशेष कर मानव समुदाय की इस व्यवस्था का ही नाम ‘राज्य’ है। अधिकांश समय देखने को मिलता है कि राज्य के नाम पर सुखद व्यवस्था के स्थान पर दुखप्रद व्यवस्थाएं मानव समाज में देखी जाती हैं। इसलिए उनके साथ ‘राम’ शब्द जोड़कर प्रकट किया गया है, ताकि यदि सुख-समृद्धि चाहते हो, तो हर राज्य को राम रूपी शोध से शुद्ध रखना चाहिए।
सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि सारी सृष्टि में तथा सृष्टि के प्रतीक समूहों में व्यवस्था सर्वोपरि है। व्यवस्थित समाज से ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्तित्व के निर्माण से ही सामाजिक समरसता बढ़ती है और राज्य सबल होता है। भारतीय संस्कृति में इसीलिए रामराज्य की परिकल्पना को इस तरह से किया गया है कि जब किसी समूह में या राज्य में प्रधानकर्ता ईश्वरवाची राम नाम से प्रेरित रहे, तो वहां की व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में ज्यादा न्याय करने वाली और सुव्यवस्थित होती है। यहां व्यक्तिगत प्रभुता का स्थान नहीं होता, बल्कि सामाजिक संप्रभुता और लोकप्रभुता पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है।
वैसे भी व्यक्तिगत नारा लगाने से किसी व्यक्ति विशेष की प्रभुता का महिमामंडन होता है, जबकि अगर किसी समूह का नारा लगाया जाए, तो उसका असर सामाजिक परिपेक्ष्य में भी व्यापक होता है। अहंकार की भावना का परित्याग होता है। यही कारण है कि हमारी संस्कृति में रामराज्य की परिकल्पना की गई है।
रामराज्य कहने में सामूहिक था अथवा सामाजिक जीवन की शुद्धता का भाव परिलक्षित होता है, इसलिए आज भी रामराज्य जैसा शब्द हमारे समाज में उतना ही लोकप्रिय है, जितना युगों पहले था। सृष्टि ने राज्य के पश्चात दशरथ-नंदन राम के राज्य की रूपरेखा खींची है, जिसमें हमें राम के यज्ञ, दान, वेद- पथ धर्म- निर्णय था त्रिगुणातीत लक्षणों का बोध कराया गया है। उनकी पत्नी, माता, भाई, सेवक आदि का सम्मिलित आदर्श कुटुंब का परिचय दिया है एवं प्रजा में स्नान आदि नित्य क्रियाओं, सत्य-संगति, भजन-पूजन, कथा-पुराण आदि की रुचि विषयक चर्चा की गई है और फिर अवधवासियों को सुख-संपदा का उल्लेख किया है।
तुलसीदास जी ने भी रामराज्य का वर्णन मानस के उत्तरकांड के पूर्वार्ध में किया है। साधारणतया पाठक यही समझते हैं कि तुलसी ने केवल दशरथ पुत्र राम की राज व्यवस्था का वर्णन किया है। परंतु यह सत्य नहीं है। अगर आप ध्यानपूर्वक और सुयोग्य विधि से इसे पढ़ने का प्रयास करेंगे, तो पता चलेगा कि उक्त वर्णन में तुलसीदास जी ने त्रिविध रामराज्य का उल्लेख किया है।
प्रथम सर्वव्यापी रामराज्य, द्वितीय अवध नरेश पुरुषोत्तम राम का राज्य और तृतीय मानस का रामराज्य। आइए रामराज्य के इन तीनों बिंदुओं पर संक्षिप्त चर्चा कर ले। सर्वव्यापी राम के राज्य से तात्पर्य है कि जो समस्त सृष्टि को व्यवस्थित रखता है। नीतियों का नियंता है और जो सृष्टि का अभियंता है। दूसरा अवध नरेश पुरुषोत्तम राजा का राज्य है, जिससे अपने आदर्श चरित्र या व्यवस्था द्वारा अवध राज्य में सुख-समृद्धि का प्रचार प्रसार किया जाता है। जन-मन के लिए न्याय की व्यवस्था की जाती है और यह तय किया जाता है कि सभी प्रजा को समान अधिकार मिलें, संतुष्टि मिले और समान अवसर मिलें। तीसरा मानस का रामराज्य है, जो मानव के मन, कर्म, वचन पर आरूढ़ होकर सर्व समाज को त्रिविध दुखों ईर्ष्या, द्वेष, दुर्गुणों से बचाकर सुखी और समृद्धशाली बनाता है। अर्थात समाज के चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया जाता है और सामाजिक परंपराएं लोक आस्थाओं को जीवित रखने के लिए सभी उद्यम किए जाते हैं।
तुलसीदास जी की मूल भावनाओं को यदि हम परिभाषित करने की चेष्टा करें, तो निस्संकोच कहा जा सकता है कि तुलसी का मूल उद्देश्य हर मनुष्य के मन पर ईश्वरीय राज्य की स्थापना का रहा होगा, क्योंकि जब तक समाज सुखी नहीं रहेगा, समृद्ध नहीं रहेगा, सत्य पर नहीं चलेगा, तब तक मानवता की बात निराधार है।
त्रिलोक के स्वामी प्रभु श्रीराम के बारे में तुलसी ने कहा है- रामराज बैठे त्रैलोका। बहुधा आकाश, पृथ्वी और पाताल, इन तीनों को ही त्रिलोक कहते हैं, परंतु लोक का अर्थ यथार्थ में होता है कोई भाग विशेष, जिसे अंग्रेजी में स्फीयर या डोमेन कहते हैं। मनुष्य मन, वाणी और कर्म का संग्रहरूप होता है, इसलिए यह तीनों भाग विशेष मानव पृथ्वी के त्रिलोक हैं। इन तीनों में भी मन-लोक सबसे महत्वपूर्ण है। इसी मन-लोक पर शासन व्यवस्था का नाम रामराज्य है। चूंकि, रामराज्य की परिकल्पना में मन पर राम का राज्य है और राज्य पर राम का आधिपत्य, इसलिए रामाधिपत्य के कारण मनुष्य मन को वश में कर लेता है। यही रामराज्य का चरमोत्कर्ष है। यही रामराज्य की सिद्धि है। अधिपति और आधिपत्य का यही संतुलन रामराज्य का मूलाधार है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, जैसा आजकल रामराज्य को परिभाषित किया जाता है। लोक-जीवन से संबंधित वैचारिक और सांस्कृतिक गहनता को समझे बिना हम प्रकट करने की होड़ में सबसे आगे निकल जाना चाहते हैं। हम इस बात की चिंता ही नहीं करते कि हमारे इस प्रकटीकरण से समाज को किस तरह का स्वरूप मिलेगा? तार्किक चिंतन की जगह पर हम भाषाई रहस्यवाद से अपनी सांस्कृतिक अवधारणा को ध्वस्त करना चाहते हैं। जबकि वर्तमान परिपेक्ष्य में जब पूरा देश आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है, राम के विचारों की बागडोर को पकड़ लेना अत्यंत लाभप्रद और सार्थक सिद्ध हो सकता है। किंतु विचारों को पूरी सच्चाई और निष्ठा से अपनाने की जरूरत है, न कि स्वार्थपरक रंगों में रंग कर प्रस्तुत करने की।
भारतीय परिपेक्ष्य में रामराज्य की परिकल्पना विशिष्ट महत्त्व रखती है। राम ने न सिर्फ भारत में, अपितु वैश्विक संदर्भ में भी अपनी सत्यता, सुंदरता और शिवत्व को सिद्ध किया है। आइए हम सब मिलकर रामराज्य की परिकल्पना को पुनः मूर्त रूप देने का प्रयास करें। श्रमदान करें, अर्थदान करें स्वाभिमानी बनें, आत्मनिर्भर बनें और निस्वार्थ होकर चरित्रवान राष्ट्र निर्माण करें।