भारत-मालदीव के बीच बिगड़ते राजनयिक रिश्तों के बीच अब दोनों देशों के बीच पुराने मैत्रीपूर्ण रिश्तों की पड़ताल होने लगी है, जो मुइज्जू के शासन से छह दशक पुराना है। 1965 में जब मालदीव को अंग्रेजी उपनिवेश से आजादी मिली तो भारत ऐसा पहला देश था, जिसने उसे एक स्वतंत्र देश का दर्जा दिया था। 1980 में भारत ने वहां अपना दूतावास खोला। भारत के इस कदम के करीब 30 साल बाद चीन ने 2011 में मालदीव में अपने राजनयिक केंद्र की स्थापना की, लेकिन जैसे ही चीन ने मालदीव से दोस्ती की, मालदीव और भारत के रिश्ते बिगड़ने लगे।
प्रो-इंडिया से प्रो-चाइना हुआ मालदीव- नवंबर-2013 में अब्दुल्ला यामीन मालदीव के नए राष्ट्रपति बने। यामीन का झुकाव चीन की तरफ था। उनकी सरकार में चीन की कूटनीति खूब फली। उनके ही शासनकाल में माले ने बीजिंग के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किया और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल हो गया। इस समझौते ने चीन को मालदीव के द्वीपों को पट्टे पर देने और देश में बीजिंग को आर्थिक और कूटनीतिक रूप से सक्रिय भूमिका निभाने की अनुमति दे दी। इस मौके का फायदा उठाते हुए चीन ने माले में बेतहाशा पैसे खर्च किए और मालदीव पर विकास के नाम पर भारी-भरकम कर्ज लाद दिया। आंकड़ों पर गौर करें तो अंगोला और जिबूती के बाद मालदीव चीन का तीसरा सबसे बड़ा कर्जदार है। इस छोटे से द्वीपीय देश पर चीन की इतनी राशि बकाया है, जो उसकी जीडीपी का लगभग 30 प्रतिशत के बराबर है। अधिकांश यामीन प्रशासन के दौरान का कर्ज है, जब चीन के इशारे पर यामीन सरकार नाच रही थी।
मालदीव में इमरजेंसी- अर्थशास्त्री कहे जाने वाले राष्ट्रपति यामीन के फैसलों से मालदीव में भारी विरोध होना शुरू हो गया। विपक्षी दलों ने वहां खूब हंगामा किया और चीन से प्रेरित नीति को खारिज करने की मांग की। जब यामीन सरकार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो लोग सड़कों पर उतर आए। इससे बौखलाए अब्दुल्ला यामीन ने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया। जब फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने जेल में बंद नेताओं को रिहा करने का आदेश दिया तो फैसला सुनाने वाले जज को भी जेल में डाल दिया गया और देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी गई।