नई दिल्ली, एजेंसी
दिल्ली से सटे फरीदाबाद के सूरजकुंड का इलाका। सुबह के 11 बज रहे हैं। मैं कपड़ा धोने वाली लॉन्ड्री स्टोर में हूं। सामने एक बड़ी वॉशिंग मशीन से तेज घरघराने की आवाज आ रही है। इसमें दर्जनों कपड़ों को धुलने के लिए डाला गया है।
स्टोर के एक कॉर्नर में धुले हुए कपड़ों को आयरन किया जा रहा है, इसकी पैकेजिंग हो रही है। कपड़े को ड्रायर मशीन से निकालकर हैंगर के सहारे सूखने के लिए रखा जा रहा है। एकदम आॅगेर्नाइज्ड तरीके से गंदे कपड़ों की धुलाई हो रही है। टेक्नोलॉजी, ऐप की मदद से आॅनलाइन गंदे कपड़ों को कस्टमर से लॉन्ड्री तक और फिर लॉन्ड्री से कस्टमर तक पहुंचाया जा रहा है।
आप ये तो सोचने नहीं लग गए कि मैंने पत्रकारिता छोड़कर ड्राई क्लीनिंग की शॉप पर नई जॉब कर ली है। नहीं… नहीं… ऐसा बिलकुल भी नहीं है। दरअसल, मैं कपड़े धोने वाली कंपनी ह्यवउ’ींल्लह्ण के एक स्टोर पर हूं। यहां मैं कंपनी के फाउंडर अरुणाभ सिन्हा से मिलने पहुंचा हूं, उनके बिजनेस के बारे में जानने आया हूं। जिस तरह से अरुणाभ ने पूरा सेटअप कर रखा है, इससे लग नहीं रहा कि वो कई सालों से धोबी का काम कर रहे हैं। मेरे हाव-भाव को देख अरुणाभ कहते हैं, न तो मैं धोबी परिवार से हूं और न मेरा ऐसा कोई फैमिली बैकग्राउंड रहा है। मैं तो एक आईआईटियन हूं। आप मुझे आईआईटियन धोबीवाला बुला सकते हैं। लोगों को लगता है कि कपड़ा धोने का काम सिर्फ एक विशेष समुदाय के लोग ही कर सकते हैं। दूसरे समुदाय खासकर जिन्हें हमारा समाज ऊंची जाति कहकर संबोधित करता है उनमें से कोई ये काम करे, उन्हें हम धोबी कहकर ताना मारते हैं। ओछी नजरों से देखते हैं। 2016-17 में मैंने इस कंपनी की शुरुआत की थी। गंदे कपड़ों को साफ कर आज हम 110 करोड़ का टर्नओवर कर रहे हैं। देशभर के 113 शहरों में 390 से ज्यादा ह्यवउ’ींल्लह्ण के स्टोर हैं। दादा-दादी की मौत के बाद घर की स्थिति बहुत खराब हो गई। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया जैसा हिसाब हो गया। घर के हालात देख मम्मी ने ठान लिया था कि नमक-रोटी खाकर भी बच्चों को पढ़ाना है। बातचीत करते-करते अरुणाभ अपने मोबाइल में कुछ तस्वीर देखने लगते हैं। ये उनके मम्मी-पापा की तस्वीर है। वो कहते हैं, मम्मी ने अपनी शादी के कंगन बेचकर कॉलेज फीस भरी थी और मुझे ककळ कराया।