जीवाश्म ईंधन की घटती उपलब्धता और इसके इस्तेमाल की वजह से होने वाला बेइंतहा कार्बन उत्सर्जन, दुनिया के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। ग्रीन हाइड्रोजन इन दोनों समस्याओं का एक बेहतरीन समाधान है। लेकिन, खुद इसकी राह में भी कुछ कम चुनौतियाँ नहीं है। ग्रीन हाइड्रोजन एक ऐसा स्वच्छ ईंधन विकल्प है, जिसे जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने वाले बहुत सारे उद्योगों और वाहनों में अपनाया जा सकता है। यह परिवहन, उद्योग, विद्युत उत्पादन जैसे अर्थव्यवस्था के बहुत सारे क्षेत्रों का अकार्बनीकरण (डीकार्बनाएइजेशन) करने में सक्षम है। इसका दूसरा लाभ यह है कि यह नवीकरणीय ऊर्जा के दीर्घकालिक स्टोरेज की दृष्टि से भी काफी उपयुक्त है।
ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन अभी अपने आरंभिक दौर में ही है। लेकिन, दुनिया भर की सरकारें और कारोबारी, कार्बन उत्सर्जन को कम करने को लेकर जो गंभीरता और प्रतिबद्धता दिखा रहे हैं, वह ग्रीन हाइड्रोजन के अच्छे भविष्य की उम्मीद जगाती है। अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी (इरना) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक ग्रीन हाइड्रोजन का वैश्विक बाजार 2.5 खरब डॉलर तक पहुँच सकता है।
इस वर्ष के आरंभ में भारत ने भी राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन की घोषणा की थी। इसका लक्ष्य पाँच साल के भीतर घरेलू उपयोग के लिए पचास लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन वार्षिक उत्पादन की क्षमता हासिल करना है। इसे वर्ष 2030 तक सवा लाख मेगावाट तक बढ़ाए जाने का इरादा जताया गया है। अगर भारत यह लक्ष्य प्राप्त कर सका तो जीवाश्म ईंधन के आयात पर होने वाले खर्च को एक लाख करोड़ रुपए तक कम किया जा सकेगा। तब तक देश में ग्रीन हाइड्रोजन का बाजार भी करीब आठ अरब डॉलर का हो चुका होगा।
इस मिशन के माध्यम से भारत स्वयं को ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन, उपयोग एवं निर्यात के वैश्विक केन्द्र तथा मार्केट लीडर के रूप में स्थापित करना चाहता है। अभी इस क्षेत्र में जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश अग्रणी हैं, जो क्रमश: 2017 व 2020 से ग्रीन हाइड्रोजन नीति पर अमल कर रहे हैं।
भारत को अपने राष्ट्रीय हरित ऊर्जा मिशन के माध्यम से करीब आठ लाख करोड़ रुपए का निवेश आने और छह लाख से अधिक नए रोजगारों के सृजन की उम्मीद है। साथ ही इससे हमारे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में हर साल पचास मिलियन मीट्रिक टन की भी कमी आएगी। और, वर्ष 2050 तक देश में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के कुल 3.6 गीगा टन कम किया जा सकेगा।
अब सवाल यह उठता है कि ‘हरित हाइड्रोजन ‘मिशन’ के इस पूरे परिदृश्य में जब सब कुछ हरा ही हरा है, तो इसमें समस्या कहाँ है? दरअसल, समस्या कई हैं। एक, इसके उत्पादन में बहुत ज्यादा लागत आती है, जिसकी वजह से इसकी कीमत ज्यादा हो जाती है। करीब 5 से 6 डॉलर प्रति किलो। दूसरी, इससे जुड़े सुरक्षा के प्रश्न। हाइड्रोजन एक ज्वलनशील पदार्थ है, जो कभी भी आग पकड़कर दुर्घटना की वजह बन सकता है। ये दोनों वजह हैं, जो लोगों को इसे अपनाने के प्रति हतोत्साहित कर सकती है।
लेकिन, ये तो सामान्य सी चीजें हैं जिनका देर-सवेर कोई न कोई हल खोज लिया जाएगा। असल में, ग्रीन हाइड्रोजन के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा है, इसकी स्वच्छ जल पर निर्भरता। जैसा कि हम जानते हैं, ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए सोलर, हवा जैसे रिन्यूएबल एनर्जी स्रोतों का इस्तेमाल कर पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विघटित किया जाता है। इस प्रक्रिया को इलेक्ट्रोलाइसिस और इस तरह से प्राप्त हाइड्रोजन को ग्रीन हाइड्रोजन कहते हैं। इसमें ग्रीन हाउस गैसों का शून्य उत्सर्जन होता है।
इस इलेक्ट्रोलाइसिस प्रोसेस के लिए अभी तक जो जल इस्तेमाल किया जाता है, वह स्वच्छ जल होता है। क्योंकि अगर जल अशुद्ध होगा तो वह इलेक्ट्रोलाइसिस की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर सकता है या इलेक्ट्रोलाइजर को खराब कर सकता है। इसलिए इसके उत्पादन में शुद्ध जल का उपयोग किया जाता है। औसतन एक टन ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन के लिए 9 घन मीटर अर्थात् 9,000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। इसका अर्थ है कि पचास लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन के लिए हर साल 45 अरब लीटर पानी चाहिए।
दुनिया में करीब 1.1 अरब लोग शुद्ध
और साफ पानी से वंचित हैं। भारत में भी प्रति व्यक्ति शुद्ध जल की वार्षिक उपलब्धता लगातार घट रही है। साल 2001 में यह 18,16,000 लीटर थी, 2011 में घटकर 15,44,000 लीटर रह गई और 2050 तक इसके 11,45,000 लीटर / प्रति व्यक्ति रह जाने की आशंका है। यानि जल संकट की सीमा, 10 लाख लीटर से कुछ ही दूर। ऐसे में 50 लाख टन हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए प्रति वर्ष 45 अरब लीटर पानी की व्यवस्था कर पाना एक टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।
लेकिन अब भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास के शोधकर्ताओं ने इस संकट का हल तलाश लिया है। उन्होंने करीब 400 वर्ग सेंटीमीटर के एक ऐसे इलेक्ट्रोलाइजर का प्रोटोटाइप विकसित किया है, जो समुद्र के खारे पानी को इलेक्ट्रोलाइज करके, उससे ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन में सक्षम है। शोधकर्ताओं का दावा है कि इस उपकरण से हर घंटे एक लीटर ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन किया जा सकता है। इस पर पारंपरिक इलेक्ट्रोलाइजरों की तुलना में लागत कम ही आएगी। यह सोलर एनर्जी से काम करता है, इसलिए हाइड्रोजन उत्पादन में बिजली के इस्तेमाल पर होने वाले खर्च में भी कमी आएगी।
अभी यह तकनीक अपनी शैशव अवस्था में ही है। हमारे यहाँ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस तरह की क्रान्तिकारी तकनीकों को मीडिया हाइप बहुत ज्यादा मिलता है। लेकिन, आम जिंदगी में चलन में आने में उन्हें कई साल लग जाते हैं। कई बार तो वे सामने आती भी नहीं हैं। और यहाँ तो हमसे पहले भी कई लोग बहुत सक्रिय हैं।
जिस तरह हम समुद्र के पानी से ग्रीन हाइड्रोजन बनाने के लिए काम कर रहे हैं, दुनिया के कई और देश इसी उद्देश्य को लेकर अपने अपने ढंग से काम कर रहे हैं। क्योंकि स्वच्छ जल की कम उपलब्धता सिर्फ हमारी ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की समस्या है। वहीं धरती के दो तिहाई हिस्से पर समुद्र का पानी हिलोरे मार रहा है, जिसका इस्तेमाल ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ाने में हो सकता है।
इसी साल फरवरी में मेलबर्न के शोधकर्ताओं द्वारा भी एक बेहद सस्ते उत्प्रेरक, कोबाल्ट ऑक्साइड का इस्तेमाल कर समुद्र के खारे पानी को, बिना किसी प्री-ट्रीटमेंट के हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित करने में सफलता हासिल करने की खबर आई है। अप्रैल में अमेरिका की स्टैनफोर्ड, मैनचेस्टर मेट्रोपॉलिटन और ओरेगान यूनिवर्सिटी के रिसर्चर दोहरी-झिल्ली प्रणाली और विद्युत की मदद से समुद्री पानी की फनलिंग करके हाइड्रोजन का उत्पादन करने में सफल रहे हैं।